Mahadevi Varma Death Anniversary Image
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार...
शब्द जो हमें सीख दे जाते हैं, शब्द जो हमें पढ़ने के बाद एक टीस दे जाते हैं, ऐसे ही शब्दों को गढ़ने वाली हिंदी की महान लेखिका महादेवी वर्मा के बारे में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने बड़े ही रोचक अंदाज में कहा था- 'शब्दों की कुशल चितेरी और भावों को भाषा की सहेली बनाने वाली एक मात्र सर्वश्रेष्ठ सूत्रधार महादेवी वर्मा साहित्य की वह उपलब्धि हैं जो युगों-युगों में केवल एक ही होती हैं; जैसे स्वाति की एक बूंद से सहस्त्रों वर्षों में बनने वाला मोती'। आज महादेवी वर्मा की पुण्यतिथि है।
छायावादी युग की चर्चित कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताएं, कहानियां और संस्मरण आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जो पहले थे। दशकों पुरानी उनकी कविताएं और संस्मरण आज भी हमें उसी सादगी भरी दुनिया में ले जाते हैं, जहां एक युवती गुंगिया का दर्द जानने के लिए उसके बोलने का इंतजार नहीं करना पड़ता, बल्कि बस पढ़ने के दौरान बरबस ही गुंगिया का दर्द पाठक महसूस करने लगता है। उनका संस्मरण 'स्मृति की रेखाएं' पढ़ने के दौरान महादेवी वर्मा एक चिट्ठी लिखने वाली लेखिका के तौर पर पाठक की आंखों के सामने तैर जाती हैं।
छायावादी लेखकों में प्रमुख थीं महादेवी
हिंदी कविता के छायावादी युग के 4 प्रमुख स्तंभ में सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ महादेवी भी प्रमुखता के साथ शामिल की जाती हैं। उन्होंने बाल कविताएं भी लिखीं हैं, जो काफी पसंद करने के साथ सराही भी गईं। उनकी बाल कविताओं के दो संकलन भी प्रकाशित हुए, जिनमें 'ठाकुर जी भोले हैं' और 'आज खरीदेंगे हम ज्वाला' शामिल हैं। कहने को महादेवी वर्मा को कवयित्री के तौर पर जाना जाता है, लेकिन उन्होंने जबरदस्त कहानियां और संस्करण लिखे हैं, जो साहित्य जगत को समृद्ध करते हैं। महादेवी के काव्य संग्रहों में शुमार 'नीहार', 'रश्मि', 'नीरजा', 'सांध्य गीत', 'दीपशिखा', 'यामा' और 'सप्तपर्णा' शामिल हैं, जिसका रसा स्वादन आज भी पाठक करते हैं। कवयित्री होने के साथ-साथ गद्यकार के रूप में भी उन्होंने अलग पहचान बनाई थी। गद्य में रूप उन्होंने 'अतीत के चलचित्र', 'स्मृति की रेखाएं', 'पथ के साथी' और 'मेरा परिवार' लाजवाब कृतियां हिंदी साहित्य जगत को दीं। इसी के साथ 'गिल्लू' उनका कहानी संग्रह है, जो पाठकों के दिलों में अमिट छाप बना चुका है।
सिर्फ 7 साल की उम्र से शुरू किया लेखन
हिंदी साहित्य जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाने वालीं महादेवी वर्मा ने सिर्फ 7 साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। बेशक लेखक अपनी कृतियां दिखता, लगता और कभी-कभी तो हूबहू उतर जाता है। यह महादेवी की कृतियों में झलकता है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। सच बात तो यह है कि उनका यह दर्द उनके काव्य का मूल स्वर दुख और पीड़ा है।
मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा कभी न अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी थी कल मिट आज चली।
महादेवी ने लिखा है- 'मां से पूजा और आरती के समय सुने सुर, तुलसी तथा मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचना की प्रेरणा देते थे। मां से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्राय: सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था। पड़ोस की एक विधवा वधु के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला शीर्षकों से शब्द चित्र लिखे थे, जो उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। व्यक्तिगत दुख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा। करुणा बाहुल होने के कारण बौद्ध साहित्य भी मुझे प्रिय रहा है।
यह भी जानिये
महादेवी वर्मा ने 1955 में इलाहाबाद शहर में साहित्यकार संसद की स्थापना की। इसमें पंडित इला चंद्र जोशी की मदद से संस्था के मुखपत्र साहित्यकार के संपादक का पद संभाला।
1952 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य चुनी गईं।
1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया।
1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि दी।
नीरजा के 1934 में सक्सेरिया पुरस्कार और 1942 में स्मृति की रेखाओं के लिए द्विवेदी पदक मिला।
1943 में उन्हें मंगला प्रसाद पुरस्कार और उत्तर प्रदेश के भारत भारती पुरस्कार से भी नवाजा गया।
यामा नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप भी मिली।
निजी जीवन
महादेवी वर्मा की शादी तो हुई थी, लेकिन सच्चाई तो यह है कि उन्होंने सफल विवाहिता का जीवन नहीं जिया। उनका विवाह 1916 में बरेली के पास नवाबगंज कस्बे के निवासी वरुण नारायण वर्मा से हुआ, लेकिन यह सफल नहीं रहा। इसके बाद उन्होंने जाने-अनजाने खुद को एक संन्यासिनी का जीवन में ढाल लिया। इसके बाद उन्होंने पूरी जिंदगी सफेद कपड़े पहने। वह तख्त पर सोईं। यहां तक कि कभी श्रृंगार तक नहीं किया। विवाद सफल नहीं हुआ, लेकिन संबंध विच्छेद भी नहीं हुआ। ऐसे में 1966 में पति की मौत के बाद वह स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं। 11 सितंबर, 1987 को प्रयाग में उनका निधन हुआ।.
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